सुस्वागतम....

दोस्तों "अभिव्यक्ति"में आपका स्वागत है. व्यवसायसे तबीब होनेसे अपने दर्दीओंके लिये दवाईयोंका परचा लिखते लिखते कब ये गझलें और कवितायें मैंने लिख डाली उसका मुझे पता ही न चला. आप जैसे सज्जन मित्र और स्नेहीजनोंके अति आग्रहवश निजानंदके लिये लिख्खी गई मेरी ये रचनायें ब्लॉगके स्वरूपमें आप समक्ष पेश करते हुए मुझे अत्याधिक हर्ष हो रहा है. मैं कोई बडा और जाना माना शायर या कवि तो नहीं हूं ईसलिये संभव है कि मेरी रचनाओमें शायद कहीं कोई त्रुटि रह गई हो. आपसे यही उम्मीद करता हूं कि ईस त्रुटिको मेरे ध्यान पर लानेकी कृपा अवश्य करें ताकि मैं ईसे सुधारके कुछ शीख पाउं. ये भी संभव है कि किसी रचनामें आपको कोई जानेमाने रचनाकारकी झलक दिखाई दे पर ये तो आप भी जानते ही है कि मेरे जैसे नवोदितोको शुरु शुरुमें प्रेरनाकी जरूरत होती ही है. आशा है कि आपको मेरी रचनायें पसंद आयेगी. आपके सुझावों, सूचनों एवम प्रोत्साहनकी मुझे हमेशा आवश्यकता रहेगी तो आप अपना प्रतिभाव देके मुझे आभारी करें. अंतमें बस ईतना ही कहूंगा कि, "एहसान मेरे दिलपे तुम्हारा है दोस्तो, ये दिल तुम्हारे प्यारका मारा है दोस्तो." अस्तु.

लघुकथा

           निम्मो.... (18-05-2011) 
     लेक स्ट्रीट, व्हाईट प्लेईन्स, अप स्टेट न्युयोर्क. बारिश अब रुक चुकी है और मैं खीडकीमेंसे हरे पेडोको देख रहा हूं जो बिलकुल गांवके मेरे घरके आंगनमें खडे पेडोकी याद दिलाते है. मौसममें भीनी भीनी खुश्बु है पर दूर मेरे देशमें मेरे गांवमें बारिशके बाद जो मीट्टीकी गीली खुश्बु आती है वो नहीं है. मनमें सवाल तो उठता है की यहां गीली मीट्टीकी खुश्बु क्यूं नही आती ? लेकिन फिर खयाल आता है की ईस देशमें ऐसी मीट्टी ही कहां है !

     कोई सापकी तरह बल खाता हुआ रास्ता मुझे उस झीलके किनारे ले जाता है जहां मैं अकसर जाके घंटो अकेला बैठा रहेता हूं. और फिर मुझे मेरे गांवका वो तालाब याद आ जाता है. स्कूलसे भागकर हम जहां दोस्तोंके साथ पानीमें कूदनेकी होड लगाया करते थे और कभी कभी तालाबमें अपनी भैंसोको भी नहलाया करते थे. कितने सारे दोस्त थे तब. अब वो सारे न जाने कहां होंगे और क्या करते होंगे. वो गन्नेका मीठा रस, वो खट्टी ईमलीका जादु, वो अंगारपे भूने हुए मक्केके भुट्टे, वो मुठ्ठीमें छूपाये हुए चने, वो ठेलेपे बर्फके गोले, वो आकाशमें उडती पतंगे, वो शादीके गाने, वो ईमरती और समोसे, वो दीपावलीके पकवान, वो फटाखेकी दुकान, वो लडना और झघडना, रुठना और मनाना और फिर मान जाना, वो छोटे छोटे सपने और छोटी छोटीसी खुशियां. आज सपने नही है, है तो सिर्फ केवल लक्ष्य और वो पानेकी समय मर्यादा. बडी बडी खुशियोंके पीछे बेतहासा भागते हुए हम वो छोटी छोटी खुशियोंको शायद भूल चुके है या तो उन्हे याद भी नही करना चाहते.

     कभी कभी ईस झीलपे धुंद उतर आती है और हर तरफ कोहरेकी चद्दर फैल जाती है बिलकुल वैसे ही जैसी हमने अपनी यादोंपे फैला रख्खी है. जब भी सूरजकी किरने ईस धुंदको चीरके चली आती है ईक कमसीन सी सूरत उभरके ज़हेनपे दस्तक देने लगती है. वो ही सूरत जिसे हम देखनेके लिये उस जमानेमें घंटो तरसा करते थे और आज भी तरस रहे है. वो थी ही ऐसी की जिसकी एक झलक पानेके लिये सब तरसते रहते थे. पर वो मेरे लिये तरसती थी. उसी तालाबके पास नीमके दरख्तके पीछे हम छूप छूपके मिला करते थे. तालाबके पीछे खेतोंमेंसे वो जब उछलती कूदती हवामें अपने लंबे बालोंको लहेराती भागती हुई आती थी तो दिल मेरा धडकना भूल जाता था. कभी वो अपने साथ घरसे गुडके लड्डु मेरे लिये लाती थी तो कभी आमका आचार और खुद पकाई हुई रोटी.अपने हाथोंसे वो मुझे खिलाती थी. हरदम मुस्कुराती रहती थी और कुछ न कुछ गुनगुनाती रहती थी. अपनी सहेलियोंकी, अपनी गायके छोटेसे बछडेकी और न जाने कौन कौनसी बाते करती रहेती थी. और जब मैं बात करता था तो अपनी मोटी मोटी आंखोसे मुझे प्यारभरी नजरोसे देखती रहती थी. उस दिन जब मैंने उसे बताया की मैं शहर जा रहा हूं आगे पढाईके लिये तो उसी मोटी मोटी आंखोमें ये मोटे मोटेसे आंसु आ गये थे. मैने उसे समझानेकी कोशिश की पर वो देर तक मेरे सीनेमें अपना मूंह छूपाके बस रोती रही. मेरा दिल भी डूबा जा रहा था. मैंने उसको वचन दिया की छूट्टियोंमें मैं जरूर आउंगा बस पांच-छे महिनोंकी ही तो बात हैं. दूसरे दिन मैं शहरके लिये निकल पडा. मुझे बहोत पढना था, आगे बढना था और बडा आदमी बनना था.

     कालिजकी पहली छूट्टियोंमें मैं घर आया और आते ही उसे मिलने चल पडा. गांवमें सब हमें अच्छे दोस्त समझते थे, उसके घरवाले भी. उसकी गलीमें मूडते ही मेरा दिल जोरोंसे धडकने लगा. कैसी होगी वो, क्या कहेगी वो, मुझे देखते ही पागल हो जायेगी वो. नादान कहीं सबके सामने दोडके मुझसे लिपट न जाये. उसके घर तक आके मैं रुका. मेरा दिल आपेसे बहार जा रहा था. एसा मन करता था की जोरसे उसके नामकी पुकार लगाउं और दोडता हुआ घरमें चला जाउं. पर जैसे तैसे मैंने अपने आपको संभाला. दहेलीज पर ही उसकी मा मिली. “अरे कैसे हो बेटा ? कब आये शहरसे ? और तेरी पढाई कैसी चल रही है ?” उसने पूछा. पर मेरी आंखे तो उसे ही ढूंढ रही थी. “मौसी निम्मो कहां है ?” मैंने पूछा. “बेटा उसकी तो शादी हो गई.” “क्या ????” मुझे मेरे कानोपे यकीन नही हो रहा था. जैसे कोई बीजली सी कौंधी थी मुझपे. “हा बेटा तीन महिने हुए. बडा ही अच्छा रिश्ता मिला. वो तो मना कर रही थी की उसे अभी शादी नही करनी है पर उसके बाबुजीके आगे उसकी एक न चली. तुं तो बेटा जानता है न निम्मोके बाबुजीको. एक बार जो ठान ली तो ठान ली. और वैसे भी ईससे अच्छा घर तो अपनी निम्मोके लिये कहां मिलनेवाला था. खाते पीते लोग है. लडकेके पिता तो उनके गांवके मुखिया है. बीस तो भैंसे है और दस गाय उपरसे अलग.” मैं कुछ भी सूननेकी हालतमें नही था. मेरा सर चकरा रहा था. ऐसा लग रहा था कि मैं जैसे डूबता जा रहा हूं, डूबता जा रहा हूं. मैं जल्दीसे भागा वहांसे. निम्मोकी मा शायद कह रही थी, “अरे बेटा ये लड्डु तो खाते जाओ.”

     फिर दोस्तोंसे पता चला कि उसकी शादी बाजुके गांवके मुखियाके लडकेसे हुई है. गांवमें उनका खानदान अव्वल माना जाता है. पर लोगोसे कुछ ऐसा भी सूना है कि बाप और लडका दोनो ही बडे सख्त किसमके आदमी है. लडकेकी पहली शादी एक ही सालमें टूट चुकी थी और दूसरी बीबीकी शादीके एक या दो सालमें ही जलकर मौत हुई थी. निम्मोसे उसकी ये तीसरी शादी थी. मैं कुछ न बोल सका. उस दिन शाम मैं उसी तालाबके पीछे नीमके दरख्तके नीचे बेतहासा रोया, रोता ही रहा. मेरी दुनिया लूट चूकी थी. उस पूरी रात मैं सो भी न सका और सुबह होते ही कीसी भी तरह बहाना करके मा और पिताजीको मनाकर वापिस शहर चला आया. दूसरी छूट्टियोंमें मैं परीक्षाकी तैयारियां करनेका बहाना बनाकर गांव भी न गया. पिताजी शहर मुझे मिलने आये तो उन्होंने बताया कि शादीके केवल सात ही महिनोके बाद निम्मोने छतके कडेसे लटककर अपने आपको फांसी लगाकर अपनी जान दे दी थी. मेरी निम्मो अब नहीं रही थी. मेरी सारी कायनात उजड चूकी थी. मैं कुछ भी कहने सूननेकी हालतमें नही था. पिताजीके जानेके बाद मैं कई दिनो तक रोता रहा बस रोता रहा.

     बस मैं फिर खूब पढा, खूब और विदेश आया. नाम कमाया, पैसा कमाया, अपना जहां बसाया पर मैं कितना गरीब हूं ये कोई नहीं जानता. क्योंकि मैं फिर कभी अपने गांव वापिस नहीं लौटा. आज भी वो सूरत हमेशा मुझे तकती रहती है, वो मीठी आवाज़ कानोमें गूंजती रहती है. लगता है मेरी निम्मो कहीं नहीं गई. वो मेरे पास है, बिलकुल पास. जब कि हकीकत ये है कि निम्मो कहीं नहीं है कहीं भी नहीं. मगर ये झील और झीलपे बिखरी हुई ये धूंद हमेशा मुझे कहती है कि मेरी निम्मो यहीं है, यहीं कहीं.