सुस्वागतम....

दोस्तों "अभिव्यक्ति"में आपका स्वागत है. व्यवसायसे तबीब होनेसे अपने दर्दीओंके लिये दवाईयोंका परचा लिखते लिखते कब ये गझलें और कवितायें मैंने लिख डाली उसका मुझे पता ही न चला. आप जैसे सज्जन मित्र और स्नेहीजनोंके अति आग्रहवश निजानंदके लिये लिख्खी गई मेरी ये रचनायें ब्लॉगके स्वरूपमें आप समक्ष पेश करते हुए मुझे अत्याधिक हर्ष हो रहा है. मैं कोई बडा और जाना माना शायर या कवि तो नहीं हूं ईसलिये संभव है कि मेरी रचनाओमें शायद कहीं कोई त्रुटि रह गई हो. आपसे यही उम्मीद करता हूं कि ईस त्रुटिको मेरे ध्यान पर लानेकी कृपा अवश्य करें ताकि मैं ईसे सुधारके कुछ शीख पाउं. ये भी संभव है कि किसी रचनामें आपको कोई जानेमाने रचनाकारकी झलक दिखाई दे पर ये तो आप भी जानते ही है कि मेरे जैसे नवोदितोको शुरु शुरुमें प्रेरनाकी जरूरत होती ही है. आशा है कि आपको मेरी रचनायें पसंद आयेगी. आपके सुझावों, सूचनों एवम प्रोत्साहनकी मुझे हमेशा आवश्यकता रहेगी तो आप अपना प्रतिभाव देके मुझे आभारी करें. अंतमें बस ईतना ही कहूंगा कि, "एहसान मेरे दिलपे तुम्हारा है दोस्तो, ये दिल तुम्हारे प्यारका मारा है दोस्तो." अस्तु.

Saturday, April 9, 2011

(7) क्या होता....


जींदगी आप सी हसीन होती तो क्या होता ?
बेखुदी मेरी भी कमसीन होती तो क्या होता ?
जन्नत बक्ष दी खुदाने आपको कयामतपे !
तेहरीरे मेरी भी संगीन होती तो क्या होता ?
गीले शीकवे बाबस्ता मेरे सर आंखो पर,
दास्ताने महोब्बत भी नमकीन होती तो क्या होता ?
जाने कितने मरासिम छूटे जिंदगीके सफरमें,
मौत भी “राझ”की रंगीन होती तो क्या होता ?

(6) नजूमी....


अच्छी सूरतवाले
सारे क्यूं
पथ्थरदिल होते है?
रास्ते पर
अपनी कमाल बिखेरे
बैठे हुए
एक नजूमीसे
मैने जब पूछा
तो उसने ह्सकर
आसमानकी तरफ
अपनी उंगली
ऊठा दी….
तबसे मै
आसमानमें
खुदा ढूंढ रहा हूं!!!

(5) सुनहरी पत्थर....


मीट्टीके चंद घरोंदोको सजा रख्खा है,
मैने सपनोमे एक शहर बसा रख्खा है ।
मिल गया था सूनहरी पथ्थर कहींसे,
काबे सा सजाकर नाम खुदा रख्खा है ।
महोब्बत पाक होती है कहते है सब,
ईसलिये बेवफाईका नाम वफा रख्खा है ।
ईश्ककी तौहीन और रूसवाईका डर,
ईसलिये तेरा नाम छूपा रख्खा है ।
कुछ तार तार दामन और कुछ आंसु,
दर्दे दिलका नाम हमने दवा रख्खा है ।
ईस जिस्मके जलते सहरामें दिल भी था “राझ”,
न जाने हमने ऊसे कहां छूपा रख्खा है ।

(4) अश्कोंका निखार....


दामनपे जो ऊसने सजाये है मोती,
हो ना हो मेरे ही अश्कोंका निखार है ।
ये किसने छेडा है मेरे अरमानोको ?
मेरे जख्मोंपे आज फिरसे बहार है ।
हसीन है वो, ऊन्हें जुल्मका ईख्तियार है,
वर्ना हमें कहां महोब्बतसे ईनकार है !
ऊनकी दिल्लगी, मेरी दीवानगी ही सही,
सूना है रबको भी दीवानोसे प्यार है ।
गुजरा हुआ वक्त कहां फिरसे आता है “राझ”,
पर धडकनोमें अब भी वो ही रफतार है ।

(3) दिलका मुआमला....


यहां कोई आशना नही मिलता,
महोब्बतका भी सिला नही मिलता ।
ईतनी शिकायते मेरे खिलाफ की,
अब कोई भी गिला नही मिलता ।
ऊनके सितमका ये अंदाज़ भी देखो,
कहते है की सिलसिला नही मिलता ।
कितने तंग है दायरे जमानेके,
आदमी से आदमी मिला; नही मिलता ।
मौतकी अदब चंद रोज़ रहती है,
फिर कोई दामन गीला नही मिलता ।
क्या पायेगा संग-दिलोकी सोबतसे “राझ”,
जहां दिलसे दिलका मुआमला नही मिलता ।

(2) अरमान....


अरमान सारे दिलमें दबाके चल दिये,
वो आये भी न थे की मुस्कुराके चल दिये ।
खुलने लगा था थोडा सा दिलका मुआमला,
कीसी ओरकी गझल वो गुनगुनाके चल दिये ।
गये थे ऊनके दरपे हम दीदारकी आससे,
चीलमनके पीछेसे ही वो शरमाके चल दिये ।
न नजर मिला सके न होठ हिला सके,
अंदर ही अंदरसे हम घबराके चल दिये ।
ये कैसी दीवानगी और कैसा है पागलपन,
पूछा न ऊनका हाल खुदका सूनाके चल दिये ।
एक तुम ही तो हो जो अपनेसे लगे हो,
बाकी सभी तो “राझ” को आजमाके चल दिये ।

(1) खुदाई....


न खुदा मिला न खुदाई मीली,
महोब्बतमे हमें तो तन्हाई मीली ।
अय खुदा तेरे जहांका निझाम कैसा है ?
ऊन्हे वफा मीली हमे रूसवाई मीली !
काफी था खूं हमारा बयाने उल्फतको,
ईसलिये कलम मीली न रोशनाई मीली ।
न तो शौहरत मीली न दौलत मीली,
जनाजेपे क्यूं आखें सब झिलमिलाई मीली ?!
संजीदा था “राझ” सिर्फ अपने ही हालपे,
जो भी मिला हालत सबकी लडखडाई मीली ।