सुस्वागतम....

दोस्तों "अभिव्यक्ति"में आपका स्वागत है. व्यवसायसे तबीब होनेसे अपने दर्दीओंके लिये दवाईयोंका परचा लिखते लिखते कब ये गझलें और कवितायें मैंने लिख डाली उसका मुझे पता ही न चला. आप जैसे सज्जन मित्र और स्नेहीजनोंके अति आग्रहवश निजानंदके लिये लिख्खी गई मेरी ये रचनायें ब्लॉगके स्वरूपमें आप समक्ष पेश करते हुए मुझे अत्याधिक हर्ष हो रहा है. मैं कोई बडा और जाना माना शायर या कवि तो नहीं हूं ईसलिये संभव है कि मेरी रचनाओमें शायद कहीं कोई त्रुटि रह गई हो. आपसे यही उम्मीद करता हूं कि ईस त्रुटिको मेरे ध्यान पर लानेकी कृपा अवश्य करें ताकि मैं ईसे सुधारके कुछ शीख पाउं. ये भी संभव है कि किसी रचनामें आपको कोई जानेमाने रचनाकारकी झलक दिखाई दे पर ये तो आप भी जानते ही है कि मेरे जैसे नवोदितोको शुरु शुरुमें प्रेरनाकी जरूरत होती ही है. आशा है कि आपको मेरी रचनायें पसंद आयेगी. आपके सुझावों, सूचनों एवम प्रोत्साहनकी मुझे हमेशा आवश्यकता रहेगी तो आप अपना प्रतिभाव देके मुझे आभारी करें. अंतमें बस ईतना ही कहूंगा कि, "एहसान मेरे दिलपे तुम्हारा है दोस्तो, ये दिल तुम्हारे प्यारका मारा है दोस्तो." अस्तु.

Wednesday, September 16, 2015

(२८) .... निकला

ता-उम्र ढूंढा वो जहेनमें बावस्ता निकला,  
मुझसे हरसू तेरे सितमका वास्ता निकला।
क्यूँकर करते महोब्बतका ईनकार तुमसे ?
हरएक आहका तुम्हीसे जो रिश्ता निकला।
हाथमें लिये खड़ा था हरकोई पत्थर यहाँ,
एक नाम तो बता जो फरिश्ता निकला !
सबब जन्नतका कोई हमसे भी तो पूछे,
उनके घरके सामने ही गुलिस्ताँ निकला।
या ईलाही मेरे गमकी कोई दवा न कर,
ईश्कमें यूं ही जीनेका शिरस्ता निकला। 

Thursday, September 22, 2011

(२७) ....ठहेरा


फिर वही लौटके ना ठहेरा,
सनमकी गलीमें जाना ठहेरा।
ईश्कमें हमें ये सौगात मिली,
मौत सिर्फ ईक बहाना ठहेरा।
काफ़िले पहोंचे मंझिलों तक,
साथ हमें भी निभाना ठहेरा।
हम भी थे फ़सानेमें सामिल,
हमें भी दिलको लगाना ठहेरा।
जहेनमें अब मुरव्वत न बाकी,
खुदको यू हीं बहेलाना ठहेरा।
सामना होगा दीनका उजालेमें,
रातको सपने सजाना ठहेरा।
“राझ”की ये दीवानगी भी देखो,
खुद रोके उनको हसाना ठहेरा।

Friday, May 6, 2011

(26) मौसम....


लम्हा लम्हा जलनेका मौसम है,
वकतके साथ पीघलनेका मौसम है ।
तुम आओ तो खिलती है ये कलियां,
तुम जाओ तो बिखरनेका मौसम है ।
निगाहोंकी ताबेदीद हम निभायें कैसे ?
चिलमन पलकोंकी गिरानेका मौसम है ।
रातके सन्नाटेमें बोलती है खामोशी,
आहट चूडियोंकी गुनगुनानेका मौसम है ।
चुभती है लबोंपे सख्त बोसोंकी गरमाहट,
चद्दरकी सिलवटोके शरमानेका मौसम है ।
जिस्मों-जांका रिश्ता बेतकल्लुफ है "राझ",
जहेनोंपे अब दस्तक दोहरानेका मौसम है ।

(25) गुमशुदा....


मैंने खुदको ढुंढना चाहा मगर,
आईना भी शर्मशुदा निकला ।
जहां भी निकला, जीधर निकला,
तेरा वजुद मुज़में मौजुदा निकला ।
उनके हुस्नकी अदा भी खूब है,
हर वार जीगरके पार बाखुदा निकला ।
परेशां देखते रह गये लोग ये तमाम,
वाएज़से जो निकला मयशुदा निकला ।
ताउम्र जिसे ढुंढता रहा मैं हर जगह,
वो शख्श मेरे घरमें गुमशुदा निकला ।
रहा तरसता खुशनुमा हस्तीको "राझ",
तेरे शहरमें पर हर कोई गमशुदा निकला ।

(24) ख्वाब....


एक अछूतेसे मोड पर
जिंदगी ख्वाबसी
करवट बदल रही थी
कि अचानक
किसीने
बडी बेरहमीसे
मुझे
झंझोडकर
नींदसे जगा दिया ।

(23) आरझु....


कभी यूं भी आ मेरे ख्वाबमें
की हकीकतोको भूला दु मैं,
मेरी दुनिया फिरसे संवार दे;
की महोब्बतोंका सिला दु मैं ।
यूं तुझसे बिछडके फिर कभी,
न जी सका मैं चैनसे;
मेरे अश्क है मेरी जिंदगी,
मेरे अश्क तुझको पीला दु मैं ।
जो अक्स तेरी नजरमें था,
वो रक्स पैमानेमें कहां;
अय खुदा तु फिरसे बहार दे,
मेरी चश्मेनमको खिला दु मैं ।
वो गुरुर था जो पिघल गया,
ये वो ईश्क है जो निखर गया;
मेरी वफासे तु ना मुकर,
तुझे जिस्मों-जांमें मिला दु मैं ।

(22) एहसास....


जिंदगी तेरे एहसासके सिवा कुछ भी नहीं,
तुम मेरे हो या नहीं ये सवालातके सिवा कुछ भी नहीं ।
रास्ते खुद-ब-खुद मिल जायेंगे तुम चलो तो सही,
मंझिले ईक ईत्तेफाकके सिवा कुछ भी नहीं ।
रस्मों, रिवाज़ोंकी ईनायत सिर्फ जमानेकी हवा है,
मेरे हाथोमें मेरे हालातके सिवा कुछ भी नहीं ।
"राझ"ने देखी है तेरी आंखोकी महेंकती खुश्बु,
दामनमें उसके झझबातके सिवा कुछ भी नहीं ।

(21) कोई....


मुझसे आईनेकी तरहा मिलता है कोई,
तूटके बीजलीकी तरहा बिखरता है कोई ।
शाम होते ही तेरी याद जवां होती है,
दिलके वीरानेमें मिलनेको तरसता है कोई ।
जानते है चांद हाथोमें नहीं आता,
फिर भी उसे पानेको तरसता है कोई ।
अब तो ये आलम है ओर कोई जचता नहीं,
"राझ" तुम्हे पानेको तरसता है कोई ।

(20) जिंदगी....


जिंदगी चंद लब्ज़ोमें बयां होती है,
कभी तन्हा तो कभी सरेआम होती है ।
तुम्हारे मिलनेसे कम होती है रंजिशे,
तुम जाओ तो गमोंकी बरसात होती है ।
बहोतसी तमन्नायें, आरझुयें समेटे है,
पता नहीं कब तुम्हारी ईनायत होती है ?
नज़रोंसे दूर हो तुम पर दिलसे तो नहीं,
फिर भी दीदारसे तुम्हारे कायनात होती है ।
तुम खुश हो तो हसती है "राझ"की दुनिया,
उदास हो गर तुम तो कयामत होती है ।

(19) भीडका मौसम....


एक खलिश सी दिलमें समाई रहेती है,
भीडके मौसमें भी घरमें तन्हाई रहेती है ।
खयाल तुम्हारे आये तो बिखरती है,
बाकी पहरों धूप सी मंडराई रहेती है ।
तुमसे बिछडे बरसों बिते फिर भी,
महेंफिल मेरी आज भी सजाई रहेती है ।
खुदा ढूंढता है "राझ" मंदिरो-मस्जिदोमें,
कौन बताये उसे, दिलमें ही खुदाई रहेती है ।

(18) क्या हो ?....


तेरी आंखोसे काजल चूरा लुं तो क्या हो ?
फिर उसमें आलम बसा लुं तो क्या हो ?
तेरे होठोंसे शबनम चूरा लुं तो क्या हो ?
फिर उसपे कोई गझल बना लुं तो क्या हो ?
तेरे गेशुसे बादल चूरा लुं तो क्या हो ?
फिर उसपे आंचल सजा लुं तो क्या हो ?
तेरी सांसोसे सागर चूरा लुं तो क्या हो ?
फिर खुदको पागल बना लुं तो क्या हो ?

(17) नश्तर....


आयनेको पता नही क्या हो गया है ?
आपकी सूरतको देख शरमा गया है ।
दिलका हाल न पूछो आपके जानेसे,
तन्हाईके ख्यालसे घबरा गया है ।
ढल गया आफताब रातको सर ओढे,
रगोंमें यादोंका नश्तर पथरा गया है ।
रोनेका दौरे-आलम खत्म हुआ कबका,
आंखोसे अब तक न कतरा गया है ।
आज फिर जहनों-जिगरमें हलचल है "राझ",
आज फिर ईश्क हुश्नसे टकरा गया है ।

(16) दागे जिगर....


दिलसे तेरा खयाल भूलाया न गया,
ये दागे जिगर कीसीको दिखाया न गया ।
तमाम उम्र तेरा ही खयाल साथ रहा,
साथ फिर किसीका निभाया न गया ।
मौत पे मौत हुई आरझुओंकी यहां,
चैन कब्रमें ईसलिये पाया न गया ।
जिंदगीभर खेलते रहे सब मेरे दिलसे,
ईसलिये जिंदगीभर ऊसे बहेलाया न गया ।
तेरी यादोंका कफन ओढकर सोया था "राझ",
बहोत जगानेपर भी उसको जगाया न गया ।

(15) वजूद....


मिले हो दिल तो फिर रस्मोंकी बंदिशे क्यूं है ?
तूं गैर है तो फिर तुज़े पानेकी ख्वाहिशे क्यूं है ?
मैं क्या ईतना गिर चुका हूं नज़रोंसे खुद की,
मेरे गम फिर तुज़े दिखानेकी कोशिशे क्यूं है ?
चाहत कभी कीसीके लिये ईतनी तो न थी,
खुदासे फिर तुज़े मांगनेकी तपशिशे क्यूं है ?
हर जनममें "राझ" सिर्फ जिस्म ही बदलता है,
मेरा वजूद मिटानेकी फिर साजिशे क्यूं है ?

(14) उसकी कहानी....


ऊसने भी खूंको जलाया होगा,
करार फिर भी दिलको नही आया होगा ।
खत्म हो चूकी होगी जब दवाये तमाम,
सिर्फ दुवासे ही काम चलाया होगा ।
दिलके सौदेमे हरदम दर्द पाया होगा,
तेरी तरहा ही हर वादा निभाया होगा ।
मिला न होगा जब कोई भी दामन,
हर अश्कको पलकोमें छूपाया होगा ।
हर अरमानको जिगरमें दबाया होगा,
हर आरझूको तिल तिल दफनाया होगा ।
मिला होगा जब भी सिला महोब्बतका,
अपनी वफाको मुज़रिम पाया होगा ।
हर सुबह ईक आशको सजाया होगा,
हर शाम फिर ऊसीको मिटाया होगा ।
ऊसकी कहानी भी तेरे जैसी है "राझ",
ईसीलिये वो तेरे करीब आया होगा ।

(13) मिले न मिले....


कौनसे रास्तेसे चले तो जिंदगी मिले,
एकबार मिले सो मिले फिर मिले न मिले ।
जानते है जरूर कडी धूप चंद रोज़की है,
फिर बारिशके मौसममें तूं मिले न मिले ।
मेरे एहसासको तूं फिरसे जिंदा कर दे,
ये सुहाने पल ये तन्हाई फिर मिले न मिले ।
सफर सख्त है मगर चलना तो है जरूर,
तुजसा हसीन हमसफर फिर मिले न मिले ।
दिलके जझबातको "राझ" लब तक लाये कैसे,
डर है कि तेरा साथ कहीं मिले न मिले ।

(12) प्यार....


दफ्न कर दो मुझे की जख्मोंको हवा न लगे,
अलग है वो मुझसे फिर क्यूं जुदा न लगे ।
सारी कायनात मेरी जब उमडके तूट पडी,
मालूम हुआ तब क्यूं मुझको तु खुदा सा लगे ।
दोस्तोंकी ईतनी दुवाये फिर दवाकी जरुरत क्या,
ये अलग बात है कि मुझको कीसीकी दुवा न लगे ।
ऊनकी दुश्मनीकी अदा ही कुछ अलग सी है,
दोस्ती भी ईस तरहा निभाये की पता न लगे ।
आपके रहमोंकरमका मोहताज़ नही है "राझ",
प्यार शर्तो पर किया जाय तो सजा सा लगे ।

(11) कदरदानी....


तेरे निसार कर दी जिंदगानी मैने,
तभी तो न की कभी बंदगानी मैने ।
बांटता फिरता हुं गली गली खुदको,
अपनोपे की है ये महेरबानी मैने ।
तुझसे बिछडके कभी, न रो सके हम;
अपने ही हाथों मोल ली पशेमानी मैने ।
तुझसे जब मिलता हुं टुकडे टुकडे मिलता हुं,
देखी है "राझ"की भी कदरदानी मैने ।

(10) तुम्हारे बिना....


तुम्हारे बिना सूरज तो नीकलता है, पर दिन ऊगता नही ।
तुम्हारे बिना चांद तो चमकता है, पर रात ढलती नही ।
तुम्हारे बिना समय तो चलता है, पर घडियां बीतती नही ।
तुम्हारे बिना दिल तो धडकता है, पर मन लगता नही ।
तुम्हारे बिना फूल तो खिलते है, पर बाग महेंकता नही ।
तुम्हारे बिना पंछी तो गाते है, पर संगीत जचता नही ।
तुम्हारे बिना नींद तो आती नही, और सपने दिनमें सताते है ।
तुम्हारे बिना लोग तो मिलते है, पर "राझ" तन्हा है ।
तुम्हारे बिना, तुम्हारे बिना, तुम्हारे बिना,
बहोत कुछ कहेना है; पर कहे तो किससे कहे ?
तुम्हारे बिना....

गुजराती साहित्यके ख्यातनाम कवि श्री सुरेश दलालकी निम्नलिखित पंक्तिओसे प्रेरित होकर:-
તારા વિના સૂરજ તો ઊગ્યો
પણ આકાશ આથમી ગયું.
તારા વિના ફૂલ તો ખીલ્યાં
પણ આંખો કરમાઈ ગઈ.
તારા વિના ગીત તો સાંભળ્યું
પણ કાન મૂંગા થયા.
તારા વિના…
તારા વિના…
તારા વિના…
જવા દે,કશું જ કહેવું નથી.
અને કહેવું પણ કોને તારા વિના ?

(9) मुकद्दर....


रोशनीको घर जलाया नही करते,
हवाओंपे मुकद्दर सजाया नही करते ।
बुंद बुंद टपकेगी गझल लहूसे,
दिवानोको यूं सताया नही करते ।
जिस्मके साथ जांको भी जलाये रखिये,
जले मुर्देको फिरसे जलाया नही करते ।
बहोतसे फासले किये तय हमने सफरमें,
दिलोंके फासले क्यों मिटाया नही करते ?
मिलेगा वो बियांबांमें या सहराकी धूपमें,
हरकोई तो "राझ" को अपनाया नही करते ।

(8) अजनबी....


आईनेमे अजनबी दीखाई देता हूं,
खुदको भी कभी कभी दीखाई देता हूं ।
पी ली है जबसे शराब तेरे हुस्नकी,
रातदिन शबनमी दीखाई देता हूं ।
रातभर रहा जो रींदोकी सोबतमें,
सुबहको मैं भी वली दीखाई देता हूं ।
जबसे छूआ है रेशमी दामन तेरा,
सबको मैं मखमली दीखाई देता हूं ।
दोस्तोकी खुदगर्जीसे मुस्कुराता हूं "राझ",
खुदको भी मैं मतलबी दीखाई देता हूं ।

Saturday, April 9, 2011

(7) क्या होता....


जींदगी आप सी हसीन होती तो क्या होता ?
बेखुदी मेरी भी कमसीन होती तो क्या होता ?
जन्नत बक्ष दी खुदाने आपको कयामतपे !
तेहरीरे मेरी भी संगीन होती तो क्या होता ?
गीले शीकवे बाबस्ता मेरे सर आंखो पर,
दास्ताने महोब्बत भी नमकीन होती तो क्या होता ?
जाने कितने मरासिम छूटे जिंदगीके सफरमें,
मौत भी “राझ”की रंगीन होती तो क्या होता ?

(6) नजूमी....


अच्छी सूरतवाले
सारे क्यूं
पथ्थरदिल होते है?
रास्ते पर
अपनी कमाल बिखेरे
बैठे हुए
एक नजूमीसे
मैने जब पूछा
तो उसने ह्सकर
आसमानकी तरफ
अपनी उंगली
ऊठा दी….
तबसे मै
आसमानमें
खुदा ढूंढ रहा हूं!!!

(5) सुनहरी पत्थर....


मीट्टीके चंद घरोंदोको सजा रख्खा है,
मैने सपनोमे एक शहर बसा रख्खा है ।
मिल गया था सूनहरी पथ्थर कहींसे,
काबे सा सजाकर नाम खुदा रख्खा है ।
महोब्बत पाक होती है कहते है सब,
ईसलिये बेवफाईका नाम वफा रख्खा है ।
ईश्ककी तौहीन और रूसवाईका डर,
ईसलिये तेरा नाम छूपा रख्खा है ।
कुछ तार तार दामन और कुछ आंसु,
दर्दे दिलका नाम हमने दवा रख्खा है ।
ईस जिस्मके जलते सहरामें दिल भी था “राझ”,
न जाने हमने ऊसे कहां छूपा रख्खा है ।

(4) अश्कोंका निखार....


दामनपे जो ऊसने सजाये है मोती,
हो ना हो मेरे ही अश्कोंका निखार है ।
ये किसने छेडा है मेरे अरमानोको ?
मेरे जख्मोंपे आज फिरसे बहार है ।
हसीन है वो, ऊन्हें जुल्मका ईख्तियार है,
वर्ना हमें कहां महोब्बतसे ईनकार है !
ऊनकी दिल्लगी, मेरी दीवानगी ही सही,
सूना है रबको भी दीवानोसे प्यार है ।
गुजरा हुआ वक्त कहां फिरसे आता है “राझ”,
पर धडकनोमें अब भी वो ही रफतार है ।

(3) दिलका मुआमला....


यहां कोई आशना नही मिलता,
महोब्बतका भी सिला नही मिलता ।
ईतनी शिकायते मेरे खिलाफ की,
अब कोई भी गिला नही मिलता ।
ऊनके सितमका ये अंदाज़ भी देखो,
कहते है की सिलसिला नही मिलता ।
कितने तंग है दायरे जमानेके,
आदमी से आदमी मिला; नही मिलता ।
मौतकी अदब चंद रोज़ रहती है,
फिर कोई दामन गीला नही मिलता ।
क्या पायेगा संग-दिलोकी सोबतसे “राझ”,
जहां दिलसे दिलका मुआमला नही मिलता ।

(2) अरमान....


अरमान सारे दिलमें दबाके चल दिये,
वो आये भी न थे की मुस्कुराके चल दिये ।
खुलने लगा था थोडा सा दिलका मुआमला,
कीसी ओरकी गझल वो गुनगुनाके चल दिये ।
गये थे ऊनके दरपे हम दीदारकी आससे,
चीलमनके पीछेसे ही वो शरमाके चल दिये ।
न नजर मिला सके न होठ हिला सके,
अंदर ही अंदरसे हम घबराके चल दिये ।
ये कैसी दीवानगी और कैसा है पागलपन,
पूछा न ऊनका हाल खुदका सूनाके चल दिये ।
एक तुम ही तो हो जो अपनेसे लगे हो,
बाकी सभी तो “राझ” को आजमाके चल दिये ।